स्वामी विवेकानंद : भारतीय संस्कृति के वैश्विक उद्घोषक : सात्विक शर्मा



अस्ताचल से उठते हुए अंधकार ने प्रथम सहस्राब्दि  के  उत्तरार्ध में आर्यावर्त के पवित्र भू भाग पर पापमयी पाद रखा । तक्षशिला की दिशा से ही धूल धूसरित होती हुई प्रकृति नालन्दा की दिशा तक नियति बन गई । गान्धार, कुशपुर, लवपुर इत्यादि प्रदेश यवनो की कृपाण से रक्तरंजित हो गए तथा अश्व पदचापों से क्षत- विक्षत होते हुए दृष्टिगोचर होने लगे । क्षण- क्षण काल शताब्दियों में परिवर्तित हो गया। यवन, म्लेच्छ, दास, ख़िलजी, तुग़लक़, लोधी, मुग़ल आदि न जाने किन- किन नामो से राक्षसों का काया विस्तार होता गया। 
माँ भारती  का पवित्र पट तंतु- तंतु होता चला गया । सभ्यता असभ्यता का ग्रास बन गई, संस्कृति स्वयं को भूल गई, विश्वगुरु  विश्वास हीन हो गया, प्रकृति अनियमित हो गई, नृप नरत्व से दूर चले गए, भाषा वर्ण विहीन हो गई है, गंगा अब अपवित्र हो गई थी, हिमालय ने  मानो आत्मसमर्पण कर दिया हो, युवा रक्त रहित सा दिखने लगा। ऐसे में इस भूलोक को एक प्रकाशपुंज ने  आलोकित किया । स्वनामधन्या माता भुवनेश्वरी देवी  व आकाशसम पिता श्री विश्वनाथ दत्त के गृह में नर श्रेष्ठ नरेंद्र नाथ दत्त मकर संक्रांति संवत 1920 के दिन शरीरस्थ हुए। स्वामी विवेकानन्द बनने का मार्ग तो विधि के विधान से प्रशस्त ही था क्योंकि ईश्वर भी स्वयम् इस भूलोक  का उद्धार चाहते  थे, ईश कृपा से स्वामी रामकृष्ण परमहंस स्वयम् उनका शिष्यत्व स्वीकार करने हेतु उनके समक्ष थे।तत्पश्चात् अपना सर्वस्व युवा नरेंद्र को देकर उन्होंने देहत्याग कर दिया है।
                    अब अपने गुरु भ्राताओं के लिए वे स्वामी बन गए थे तथा संन्यास के अर्थगांभीर्य को समझते हुए उन्होंने कहा कि योगी बनने से पहले उपयोगी बनना आवश्यक है। उन्होंने भारत भ्रमण का निश्चय किया तथा अंततः कन्यकुमारी में माँ भारती के श्री चरणों में अवस्थित शिलाखंड पर ध्यान मग्न हो गए। अपने दिव्य चक्षुओं से भारत की अलौकिक उज्ज्वलता को देखा। गहन अध्ययन व सांसारिक अनुभूतियों से उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि विश्व में मानवोपयोगी जीवनशैली, व्यवहार, ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, इत्यादि तो भारतीय संस्कृति में निहित है। इस संस्कृति के आधार हमारे वेद व दर्शन ग्रंथ है जिसका सदाशय हमारी धमनियों में ही तो बहता है। 
                        उन्होंने विश्व बंधुत्व के लिए भारतीय संस्कृति को सर्वोपयोगी माना।मूलभूत समस्याओं का समाधान भी इसी में पाया।मानव की मानव पर विजय की प्रतिस्पर्धा का शस्त्र व शास्त्र भी इसी संस्कृति में देखा। अतः अब स्वामीजी किसी निर्णय पर पहुंच चुके थे ।मुग़ल क़ालीन परतंत्रता, तत्पश्चात आंगल शासन की बेड़ियों से जकड़ा भारत उनके अध्ययन का विषय बना। बाल, युवा, वृद्ध उनके पात्र थे। उन्होंने युवाओं में नायकत्व ढूँढा तथा अपना ध्यान उनकी ऊर्जा पर केंद्रित किया।
                उन्होंने संस्कृति को उसके यथार्थ में परिभाषित किया ।उनकी संस्कृति एक संकीर्ण व जातिगत संस्कृति नहीं थी, उनकी संस्कृति मात्र भारत तक सीमित नहीं थी, उनकी संस्कृति मानव जाति का शोषण व अपमान नहीं थी, उनकी संस्कृति भौतिक सुखों का लोभ नहीं थी, उनकी संस्कृति उपनिवेशवादी नहीं थी, उनकी संस्कृति अल्लाहताला का ग़ाज़ी अथवा मोमिन बनने व बनाने जैसी नहीं थी, अपने धर्म से दूसरे के धर्म की पराजय करना उनकी संस्कृति में नहीं  था ।
उनकी संस्कृति तो वो अद्वैतवाद, मानववाद, मोक्षवाद, विश्ववाद, अध्यात्मवाद, आदि के परिप्रेक्ष्य में परिभाषित होती है।
                     अब स्वामी विवेकानंद अपने उपर्युक्त वादों से ओतप्रोत होकर विश्व संवाद हेतु देश की सीमाओं से बाहर निकल पड़े। उनकी संस्कृति के संज्ञा रूप विश्व ने तब सुनें जब उन्होंने शिकागो धर्म संसद में ‘Sisters and brothers of America’ का उच्चारण कर भारतीय संस्कृति का दिक्दर्शन करा दिया।विश्व के समक्ष यह उदघोष भारत की संस्कृति का ही तो जयघोष था।उन्होंने प्रथमत: ‘Sisters’ का उच्चारण किया - यह भी विचारणीय तथ्य है। इस देवभूमि की संस्कृति का शुभारंभ इसी नारी-नमन  से होता है।भारत देश के करोड़ों निवासियों की ओर से किए गए उनके धन्यवाद में भी यह संस्कृति निहित है, जिसका उद्बोधन उन्होंने वहाँ किया।
इससे पूर्व वे श्रीलंका, सिंहपुर,  हांगकांग, चीन, जापान, कैनेडा होते हुए शिकागो पहुँचे थे। वैश्विक धर्मों को सम्मानित करते हुए उन्होंने हिंदू संस्कृति जो कि भारतीय संस्कृति का पर्यायवाची है को आधार बनाया तथा  उपस्थित विश्व के धार्मिक संतों के प्रश्नों के भी उत्तर दिए।अपनी महत्ता से वे विभिन्न भूभागों पर ससम्मान निमंत्रित हुए। तदोपरांत,  वे विभिन्न यूरोपीय देशों का सांस्कृतिक जागरण करते हुए स्वदेश लौट आए।
त्याग, आत्मविश्वास, निर्भयता, धर्मनिष्ठा, वैश्विकता, मानववाद,राष्ट्रप्रेम,शारीरिक स्वास्थ्य, नारी सम्मान, मनुष्यत्व, सहिष्णुता, आलस से त्याग, सुशिक्षा इत्यादि सांस्कृतिक प्रवचनों के पश्चात उन्होंने एक मूल मंत्र भी दिया जिसके माध्यम से यह सब सम्भव हो सकता है, वह है—
उद्धरेदात्मनाऽत्मानम_
अर्थात स्वयं को ही स्वयं का उद्धारक अथवा तारक बनना होगा।दैहिक, मानसिक,आध्यात्मिक स्वतंत्रता की प्राप्ति अपने हाथ में ही निहित है।स्वामी जी का संकेत व लक्ष्य युवा पीढ़ी की ओर विशेष रूप से रहा है।आज भी युवा पीढ़ी विश्व स्तरीय अथवा क्षेत्र स्तरीय परिवर्तन में प्रासंगिक है। उनके आह्वान में युवाओं को ही मूल रूप से प्रेरित किया गया है।वर्ष 1893 में याकोहामा से युवाओं के नाम पत्र में उन्होंने लिखा कि नवयुवकों को जापानी संस्कृति से कर्मशील होना सीखना चाहिए। उन्हें जातिवाद, अन्धविश्वास, निम्न लक्ष्य, आलस्य इत्यादि को अपनी धीरता व दृढ़ता से समाप्त कर देना चाहिए।
             उन्होंने न केवल भारतीय युवाओं अपितु विश्व स्तर पर भी युवाओं का यही आह्वान किया  ताकि विश्व की उन्नत संस्कृति सर्वत्र एक समान हो। वेद व भारतीय दर्शन भारतीय भूभाग मात्र तक ही सीमित न रहें। विभिन्न धर्मों— वर्णों—वर्गों—  जातियों— क्षेत्रों— भाषाओं व परंपराओं के प्रति सहिष्णुता, सम्मान, संभाव, स्वीकार्यता,सम्यकता, सभ्यता, इत्यादि ही तो उनकी सांस्कृतिक उद् घोषणा  रही है।
                          विश्व मंच पर वैदिक मूल्यों का न्यायपूर्ण  घोष—‘ First bread and then religion .............. feel for them as your Vedas teach you’ उन्हें निश्चित रूप से वैश्विक उद् घोषक सिद्ध करता है। धर्म- संसद में श्रीमद्भगवद्गीता को ससम्मान मंच पर अपने साथ रखना उनके इसी सांस्कृतिक निष्कर्ष की पुष्टि करता है। विश्वस्तरीय समाचार पत्रों व व्यक्तियों की प्रशंसा व विभिन्न टिप्पणियाँ उन्हें वैश्विक  विचारक घोषित करती हैं।दरिद्र व अभावग्रस्त लोगों की सेवा को पूजा की संज्ञा देने वाला व्यक्ति मानवीय संस्कृति का पुरोधा नहीं तो और क्या है? अकल्पनीय- अदम्य -अपरिमेय- अलौकिक- आदर्श- आकर्षक- अमूल्य- अवलंबनीय -अप्रतिम- आध्यात्मिक- अमृतमय -अद्भुत आर्यवर्त की विश्व- पटल पर प्रस्तुति का श्रेय स्वामीजी के अतिरिक्त और किसे मिल सकता है?
सम्पूर्ण इतिहास पर यदि दृष्टिपात किया जाए तो एक व्यक्ति, एक संन्यासी, एक देशभक्त, एक युवा नेता, एक जीवनमुक्त, एक शिष्य, एक योगी, एक वेदान्ती, एक वैदिक, एक वैश्विक व्यक्तित्व, एक जितेंद्रिय, एक आत्मबोधि, एक सच्चरित्र, एक उदाहरण, एक विकल्प, एक उद्धारक, एक आशा, एक सूर्य, जो स्वयं में ही एक पूर्ण लोक है— कोई और नहीं है— वह तो स्वामी विवेकानंद ही थे, हैं और रहेंगे।
                        श्री गीता के अनुसरणी  व भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त स्वामी विवेकानन्द, धनुर्धारी अर्जुन के ही तो प्रतिरूप हैं तभी तो भारतीय संस्कृति की सर्वत्र विजय सम्भव हुई।

यत्र योगेश्वर: कृष्णो, यत्र पार्थो धनुर्धर: ।
 तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा  नीतिर्मतिर्मम ।।

धन्यवाद।
सात्विक शर्मा
बी ए प्रथम वर्ष
NSCB राजकीय डिग्री कॉलेज हमीरपुर

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