स्वामी विवेकानंद : भारतीय संस्कृति के वैश्विक उद्घोषक : अस्तित्व शर्मा




“वही है रक्त, वही है देश, 
                  वही साहस है, वैसा ज्ञान
वही है शांति, वही है शक्ति, 
             वही हम दिव्य आर्य संतान ।
जियें तो सदा इसी के लिए
                       यही अभिमान रहे यह हर्ष ।
निछावर कर दें हम सर्वस्व,
                       हमारा प्यारा भारतवर्ष ।।” 
      ज्ञात नहीं कितना रक्त बहा इस धरा पर ,माँ भारती का आँचल अनगिणत वीर- वीरांगनाओं के केसरिया रंग से संचित होकर भी आदि काल से सहनशीलता का द्योतक रहा ।निसंदेह जो अनुपम , अद्वितीय , अनूठा एवम् अद्भुत हो उसी पर आक्रांताओं की क्रूर दृष्टि रहती है । विश्वगुरु की कीर्ति पताका नीले अम्बर पर लहराने वाले भारत ने शिक्षा के विस्तार के लिए तक्षशिला और नालंदा में परचम लहराया ।इतिहास के रक्तरंजित पृष्ठ हमारी निरंतर गतिशील संस्कृति का बोध करवाते हैं ।राजा भरत की धर्मभूमि ,सम्राट अशोक की कर्मभूमि पर बाह्य आक्रांताओं यवन,हूण ,क़ासिम ,गजनवी, तुगलक ,लोधी,तैमूर,मुग़ल आदि न जाने कितने लुटेरों के वीभत्स कृत्यों ने माँ भारती के पावन आँचल को मलिन करने का भरसक दुस्साहस किया । मध्यकाल के उत्तरार्ध तक पहुँचते - पहुँचते छलनी माँ भारती का हृदय अपनी दुर्दशा पर विलाप कर रहा था , थपेड़ों से सभ्यता  धूल धूसरित हो गयी , संस्कृति का रंग फ़ीका पड़ गया , प्रकृति अपना धर्म भूलने लगी , भाषा भाव विहीन होने लगी और गर्व से माँ भारती के लिए अपनी धमनियों एवम् शिराओं का रक्त प्रवाहित करने वाला युवा मात्र मांस का लोथड़ा बन कर जीवन को बिताने लगा । औपनिवेशिक ब्रिटिश शक्तियों की परतंत्रता की ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ भारत लड़खड़ाने लगा ।ऐसी स्थिति में प्रत्येक भारतीय किसी दैविक चमत्कार की आशा से ऐसे देख रहा था जैसे,प्यासा नीर को, भूखा अन्न को, शिशु माँ को, कृषक मेघ को, शिष्य गुरु को और तपस्वी भगवान को। ऐसे में इस भूलोक को एक अलौकिक दिव्य प्रकाशपुंज ने आलोकित करके आज से 158 वर्ष पूर्व, मकर संक्रांति संवत 1920 के दिन माँ भुवनेश्वरी देवी जी एवं पिता विश्वनाथ दत्त जी के गृह में पुण्यात्मा बालक नरेंद्रनाथ दत्त जी का जन्म हुआ। प्रकृति ने साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं कि माँ ही बच्चे की प्रथम गुरु होती है। माँ भुवनेश्वरी की धार्मिक रुचि एवं बोध ने बालमन के स्मृति पटल पर अमिट आध्यात्मिक चिह्न अंकित किए , जिससे बालक के हृदय में हिंदू धर्म के प्रति जिज्ञासा और संस्कृति के प्रति चुंबकीय आकर्षण उत्पन्न हुआ । माँ ने घर की दीवार पर भगवान श्री कृष्ण जी का रथ पर बैठे हुए एक श्लोक के साथ चित्र लगाया हुआ था ।
“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥”
 जब जब धर्म की हानि होती है, तब तब मैं आता हूँ ।जब अधर्म बढ़ता है तब मैं साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ ।सज्जन लोगों की रक्षा के लिए मै आता हूँ ,दुष्टों के विनाश करने के लिए मैं आता हूं, धर्म की स्थापना के लिए में आता हूं और प्रत्येक ऐसे युग में जन्म लेता हूं ।
कुशाग्रमनीषी बालक ने प्रश्न किया ,”माँ ! ये कौन हैं ,रथ लेकर कहाँ जा रहे हैं ?”माँ ने बालक की जिज्ञासा को जानते हुए उत्तर दिया कि ये तारणहार श्री कृष्ण जी हैं जो अर्जुन के सारथि बनकर धर्म की अधर्म पर जय हेतु कर्म का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं ।बालक सहसा बोला ,”माँ बड़ा होकर मैं भी इनकी तरह बनूँगा ।” बालक बड़ी रूचि से रामायण, महाभारत , श्रीमदभगवद्गीता ,उपनिषद, पुराण तथा हिंदू शास्त्रों को आत्मसात् करने लगा । यही वह आयाम था जिसने कृतित्व से व्यक्तित्व निर्माण किया । यही वह शोध था जिसने बालक नरेंद्र को स्वामी विवेकानंद बनाया जिसका एकमात्र ध्येय भारतीय संस्कृति की पताका को विश्व में प्रतिस्थापित करना। ईश्वरीय कृपा से स्वामी रामकृष्ण परमहंस उनका शिष्यत्व स्वीकार करने हेतु  तैयार थे।संन्यास ग्रहण करने के पश्चात भारत भ्रमण किया। अपने ज्ञानी दिव्य चक्षुओं से अनुभव किया कि भारतीय संस्कृति संकीर्ण या क्षेत्रीय नहीं है,भारतीय संस्कृति अपने धर्म से दूसरे के धर्म की पराजय नहीं है  बल्कि भारतीय संस्कृति सभी धर्मों को एक ध्वज तले साथ चलने की है ।भारतीय संस्कृति समस्त मानव जाति के कल्याण की संस्कृति है । ‘परोपकार :पुण्याय पापाय परपीडनम ।’
यही भारतीय संस्कृति है जो मानवजाति को परमार्थ , पुरुषार्थ और निस्स्वार्थ भाव से परोपकारी बनाती है , व्यक्ति के पौरुष को  सकारात्मक रूप प्रदान करती है और दूसरे को अकारण कष्ट देना पाप समझती है ।
स्वामी विवेकानंद जी इसी संस्कृति के वाहक बन कर जाति , धर्म से ऊपर उठकर मानवता के हित के लिए समता के अधिकार को व्यावहारिकता प्रदान करके  विश्व में ऐसे समाज की पुनर्स्थापना करना चाहते थे जो किसी से कोई भेदभाव न करे । विश्व बंधुत्व के लिए भारतीय संस्कृति को सार्थक एवम् सर्वोपयोगी माना । संस्कृति के विस्तार एवं संचार के लिए स्वामी जी ने विश्व संवाद हेतु विदेश की कई यात्राएँ कीं ।भारतीय संस्कृति की गूँज शिकागो की धर्म संसद तक ले जाने वाला संन्यासी  , हाथ में श्रीमद्भगवद्गीता को अपने साथ रखने वाला संस्कृति का पुरोधा ,वैश्विक मंच पर वैदिक मूल्यों का न्यायपूर्ण घोष करने वाला ,अलौकिक वाणी का धनी कोई आम भारतीय नहीं  , स्वामी  विवेकानंद जी ही थे जिन्होंने भारतीय संस्कृति का परिचय देते हुए सम्बोधन आरम्भ किया ।
“मेरे अमरीकी बहनों और भाइयों !
    आपने जिस सौहार्द एवं स्नेह के साथ हमारा अभिनंदन किया है उसके प्रति आभार व्यक्त करने हेतु खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण  हो रहा है । संसार में संन्यासियों की प्राचीनतम परम्परा की ओर से ,धर्मों की माता की ओर से ,सभी सम्प्रदायों एवम् मतों के कोटि हिंदुओं की ओर से आपका आभार व्यक्त करता हूँ ।” 
भारतीय संस्कृति ने विश्व को सहिष्णुता एवं सार्वभौमिक स्वीकृति दोनों मानवीय मूल्यों को ग्राह्य करके समस्त धर्मों के शरणार्थियों को आश्रय दिया है । मैं ऐसे धर्म का एवम् संस्कृति का अनुयायी होने में गर्व अनुभव करता हूँ ।भारतीय संस्कृति से इनका पर्याय हिंदुत्व से था ।वही भारत जिसको जिसने छलनी किया उसे भी हृदय से लगाने वाली भारतीय  जीवन शैली से था ।उन्हें भारतीय  संस्कृति के अस्तित्व के लिए निष्ठा से कर्तव्य निर्वहन करने में सन्तोष की अनुभूति होती थी ।उन्होंने वहाँ यह भी कहा कि लाखों भारतीय इस श्लोक का प्रतिदिन सुबह उच्चारण करते हैं :-“उद्धरेत  आस्माना आत्मानं न आत्मानं अवसादयेत्  ।”
संसार सागर से आत्मिक बल के द्वारा ऊँचा उठना चाहिए और अपनी आत्मा को गिरने न दें । स्वामी जी ने स्वयं को ही स्वयम् का तारणहार बताते हुए इस श्लोक का उद्घोष किया ।
स्वामी जी विभिन्न देशों की यात्रा के पश्चात् जब वापिस भारत आए तो समुद्र तल पर जहाज़ से उतरते ही माँ भारती की मिट्टी में लोट-पोट होकर रोते हुए कहने लगे ,” हे माँ भारती ! मैं तेरी मिट्टी से दूर गया था।मुझे अपने आँचल में ले लो माँ ।“ वेदांत , शास्त्रों के ज्ञाता , अद्वैतवाद के अनुयायी , भारतीय संस्कृति के अग्रदूत स्वामी  विवेकानंद जी आज भी भारतीय संस्कृति के महान उद्घोषक हैं जो भारत के करोड़ों युवकों के आदर्श  हैं । स्वामी विवेकानंद ने भारतीय संस्कृति में उस समय प्राण फूंके जब राष्ट्र खंडित ,निराधार और दिशाहीन था ।उन्होंने युवाओं में अपनी ऊर्जा का राष्ट्रहित में संचारण किया ।उन्होंने यह अनुभव किया कि भारतीय संस्कृति शस्त्र से शास्त्र तक के ज्ञान को समाहित किए हुए है ।भारतीय संस्कृति जीवनोन्मुखी एवम् जीवनदायिनी है जो विज्ञान से लेकर योग को प्रतिबिम्बित करती है । वर्तमान में केंद्र सरकार ,स्वामी विवेकानंद के आदर्शों पर चलकर राष्ट्र हित एवं राष्ट्र पुनर्निर्माण में कार्य कर रही है । स्वामी विवेकानंद के द्वारा हस्तांतरित संस्कृति की राह पर चलते हुए हज़ारों युवा एवम् युवतियाँ जीवन को समर्पित कर रहे हैं ।अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्त्ता इसी परंपरा का निर्वहन करते हुए पूर्णकालिक जीवन व्यतीत करते हैं और कई आजीवन राष्ट्र को समर्पित करके स्वामी जी के पद चिह्नों पर चलते हैं । प्रत्येक युवा की अपनी संस्कृति से साक्षात्कार करवाने वाले तपस्वी स्वामी जी के हम ऋणी हैं जिनके गहन चिंतन से भारतीय संस्कृति को विदेशों में भी मान मिला और भगिनी निवेदिता जैसी बहनों को हमारी संस्कृति से अनुराग हुआ ।
    तत्कालीन मेकाले शिक्षा नीति ने भारतीयों को अपनी संस्कृति से विमुख कर दिया था लेकिन एक ज्ञानयोगी ,भक्तियोगी ,कर्मयोगी ,राजयोगी,
संन्यासी ने अपनी अल्पायु के सार्थक सर्वोपयोग से यह सिद्ध कर दिया कि , “ उठो ,जागो ।तब तक चलते रहो जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए ।”
इसी ध्येय के साथ अपने समग्र जीवन को भारतीय संस्कृति के प्रति आत्मीयता से समर्पित करने वाले भारतीय संस्कृति के अमर उद्घोषक को मेरा कोटि कोटि नमन ।
वन्दे मातरम् ।
अस्तित्व शर्मा 
कक्षा सातवीं 
रा० व० मा० वि ० बाल घुमारवीं 

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