स्वामी विवेकानंद का शिक्षा दर्शन : आशा सूर्यवंशी



स्वामी विवेकानंद के अनुसार शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति है। मानव में शक्तियाँ जन्म से ही विद्यमान रहती है। शिक्षा उन्हीं शक्तियों या गुणों का विकास करती है। पूर्णता बाहर से नहीं आती वरन् मनुष्य के भीतर छिपी रहती है। सभी प्रकार का ज्ञान मनुष्य की आत्मा में निहित रहता है। गुरूत्वाकर्षण का सिद्धान्त अपने प्रतिपादन के लिए न्यूटन की खोज की प्रतीक्षा नहीं कर रहा था। वह न्यूटन के मस्तिष्क में पहले से ही विद्यमान था। जब समय आया तो न्यूटन ने केवल उसकी खोज की। विश्व का असीम ज्ञान-भंडार मानव मन में निहित है, बाहरी संसार केवल एक प्रेरक मात्र है, जो अपने ही मन का अध्ययन करने के लिए प्रेरित करता है। पेड़ से सेव के गिरने से न्यूटन ने कुछ अनुभव किया और मन का अध्ययन किया। उसने अपने मन में पूर्व से स्थित विचारों की कड़ियों को व्यवस्थित किया और उसमें एक नयी कड़ी को देखा, जिसे मनुष्य गुरूत्वाकर्षण का नियम कहते हैं।
अतैव सभी ज्ञान, चाहे वह संसारिक हो अथवा परमार्थिक, मनुष्य के मन में निहित है। यह आवरण से ढ़का रहता है, और जब वह आवरण धीरे-ध् ाीरे हटता है, तो मनुष्य कहता है कि ‘‘मुझे ज्ञान हो रहा है।’’ ज्यों-ज्यों आवरण हटने की प्रक्रिया या आविष्कार की प्रक्रिया बढ़ती जाती है त्यों-त्यों मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि होती जाती है। जिस मनुष्य पर यह आवरण पूर्णत: पड़ा रहता है, वह मूढ़ या अज्ञानी है और जिस मनुष्य पर से यह आवरण बिल्कुल हट जाता है, वह सर्वज्ञानी मनुष्य हो जाता है। जिस प्रकार एक चकमक पत्थर के टुकड़े में अग्नि निहित रहती है, उसी प्रकार मनुष्य के मन में ज्ञान निहित रहता है। उद्दीपक कारण ही वह घर्षण है, जो उठा ज्ञानाग्नि को प्रकाशित कर देता है। स्वामी विवेकानंद सर्वहितकारी, सर्वव्यापी एवं मानव-निर्माण करने वाली शिक्षा पर जोर देते थे। वे मानव की स्वतंत्रता को मूल बिन्दु मानकर राजनीति से परे मानव निर्माण की योजना के सर्मथक थे। शिक्षा को धर्म से जुड़ा मानकर विवेकानंद ने दोनों की मानव के अन्दर पाई जाने वाली प्रवृत्ति को उजागर करना ध्येय माना। मानव-कल्याण का मूल बीज शिक्षा को मानकर विवेकानंद ने शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने की योजना बनाई। उन्होंने शिक्षा की एक उदार एवं संतुलित प्रारूप देश के सामने रखा ‘‘आवश्यकता है विदेशी नियंत्रण हटाकर हमारे विविध शास्त्रों, विद्याओं का अध्ययन हो और साथ ही साथ अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य विज्ञान भी सीखा जाये। हमें उद्योग-धंधो की उन्नति के लिए यांत्रिक शिक्षा भी प्राप्त करनी होगी जिससे देश के युवक नौकरी ढूंढ़ने के बजाय अपनी जीविका के लिए समुचित धनोपार्जन भी कर सके और दुर्दिन के लिए कुछ बचा भी सके। शिक्षा के महत्व पर प्रकाश डालते हुए स्वामी विवेकानंद ने ज्ञान दान को श्रेष्ठ दान बताया। उन्होंने चार प्रकार के दान बताये: धर्म (आध्यात्मिक ज्ञान का) दान, ज्ञान दान, प्राण दान और अन्न दान। इन सब में उन्होंने प्रथम दो दानों को श्रेष्ठ दान माना। वे ज्ञान-विस्तार को भारत की सीमाओं से बाहर भी ले जाना चाहते हैं। भारत ने संसार को अनेक बार आध्यात्मिक ज्ञान दिया। स्वामी जी ने धर्म प्रचार और लौकिक विद्या दोनों को ही मानव के लिए आवश्यक बताया पर उनका स्पष्ट मत था कि ‘‘यदि लौकिक विद्या बिना धर्म के ग्रहण करना चाहो, तो मैं तुमसे साफ कह देता हूँ कि भारत में तुम्हारा ऐसा प्रयास व्यर्थ सिद्ध होगा- वह लोगों के हृदयों में स्थान प्राप्त नहीं कर सकेगा। वे कहते थे भारतीयों में आत्मविश्वास भरने के लिए उन्हें आत्मतत्व की जानकारी देनी चाहिए। वे कहते हैं- ‘‘अब उनको (वंचितों को) आत्मतत्व सुनने दो, यह जान लेने दो कि उनमें से नीच-से-नीच में भी आत्मा विद्यमान है। वह आत्मा, जो कभी न मरती है, न जन्म लेती है, जिसे न तलवार काट सकती है, न आग जला सकती है और न हवा सुखा सकती है, जो अमर है, अनादि और अनन्त है, शुद्ध स्वरूप, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। इस प्रकार विवेकानंद ने शिक्षा के द्वारा आत्मसाक्षात्कार की संभावना पर अत्यधिक बल दिया।

उन्नीसवीं शताब्दी में प्रचलित रहस्य या तांत्रिक विद्या की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा इन्होंने मानव के विवेक को समाप्त कर दिया। वे आदर्श शिक्षा व्यवस्था की कल्पना करते हुए कहते है ‘‘हमें ऐसी सर्वांगसम्पन्न शिक्षा चाहिए, जो हमें मनुष्य बना सके।’’ वे केवल सूचनाओं के संग्रह को शिक्षा नहीं मानते थे। उनका कहना था: ‘‘शिक्षा उस जानकारी के समुच्चय का नाम नहीं है, जो तुम्हारे मस्तिष्क में भर दिया गया है, और वहाँ पड़े-पड़े तुम्हारी सारी जिन्दगी भर बिना पचाए सड़ रही है। हमें तो भावों या विचारों को इस प्रकार आत्मसात् करना चाहिए, जिससे जीवन निर्माण हो, मनुष्यत्व आवे और चरित्रगठन हो। यदि शिक्षा और जानकारी एक ही वस्तु होती, तो पुस्तकालय सबसे बड़े सन्त और विश्व-कोष ही ऋषि बन जाते।’’
शिक्षा का उद्देश्य 
स्वामी विवेकानंद ने शिक्षा को व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के उत्थान के लिए आवश्यक माना। उन्होंने हर समस्या का निदान शिक्षा को बताया। शिक्षा के उद्देश्यों का विवेचन करते हुए वे लिखते हैं ‘‘जो शिक्षा प्रणाली जन-साधारण को जीवन-संघर्ष से जूझने की क्षमता प्रदान करने में सहायक नहीं होती, जो मनुष्य के नैतिक बल का, उसकी सेवा-वश्त्ति का, उसमें सिंह के समान साहस का विकास नहीं करती, वह भी क्या शिक्षा के नाम के योग्य है?’’ स्वामी विवेकानंद ने शिक्षा के महत्वपूर्ण उद्देश्य बतलाये-
अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति: विवेकानंद ने शिक्षा का सर्वाक्तिाक महत्वपूर्ण उद्देश्य मानव में निहित पूर्णता का विकास है। वेदान्त-दर्शन के अनुसार प्रत्येक बालक में अनन्त ज्ञान, अनन्त बल एवं अनन्त व्यापकता की शक्तियाँ विद्यमान हैं, परन्तु उसे इन शक्तियों का पता नहीं। शिक्षा का उद्देश्य इन शक्तियों के बारे में छात्रों को जानकारी देना तथा प्रत्येक विद्याथ्री में अन्तर्निहित शक्तियों का उत्तरोत्तर विकास करना है।
मानव-निर्माण करना: स्वामी विवेकानंद ने शिक्षा प्रमुख उद्देश्य मानव का निर्माण करना बताया। वे कहते हैं ‘‘शिक्षा द्वारा मनुष्य का निर्माण किया जाता है। समस्त अध्ययनों का अन्तिम लक्ष्य मनुष्य का विकास करना है। जिस अध्ययन द्वारा मनुष्य की संकल्प-शक्ति का प्रवाह संयमित होकर प्रभावोत्पादक बन सके, उसी का नाम शिक्षा है।’’ 
शारीरिक पूर्णता: विवेकानंद के अनुसार मानव तभी पूर्णता प्राप्त कर सकता है जब उसका शरीर स्वस्थ हो। शारीरिक दुर्बलता पूर्णता के लक्ष्य प्राप्त करने में सबसे बड़ा बाधक तत्व है। वे युवकों को सम्बोधित करते हुए कहते है ‘‘सबसे पहले हमारे युवकों को सबल बनाना चाहिए। धर्म तो बाद की चीज है। तुम गीता पढ़ने की बजाय फुटबाल खेलकर स्वर्ग के अधिक नजदीक पहुँच सकते हो। यदि तुम्हारा शरीर स्वस्थ है, अपने पैरों पर दृढ़ता पूर्वक खड़े हो सकते हो, तो तुम उपनिषदों और आत्मा की महत्ता को अधिक अच्छी तरह समझ सकते हो।’’ 
चरित्र का निर्माण: स्वामी विवेकानंद उसी शिक्षा को शिक्षा मानते थे जो चरित्रवान स्त्री-पुरूष को तैयार कर सके। उनके अनुसार सबल राष्ट्र के निर्माण हेतु नागरिक का चरित्रवान होना आवश्यक है। वे कहते हैं ‘‘आज हमें जिसकी वास्तविक आवश्यकता है, वह है चरित्रवान स्त्री-पुरूष। किसी भी राष्ट्र का विकास और उसकी सुरक्षा उसके चरित्रवान नागरिकों पर निर्भर है।’’ अत: विद्यार्थियों में उच्च चरित्र का निर्माण शिक्षा का एक महत्वपूर्ण कार्य है।
जीवन-संघर्ष की तैयारी: शिक्षा विद्याथ्री को भावी जीवन के लिए तैयार करती है। विवेकानंद की दृष्टि में जीवन-संघर्ष की तैयारी के लिए तकनीकी एवं विज्ञान की शिक्षा आवश्यक है। विवेकानंद कहते हैं ‘‘आज की यह उच्च शिक्षा रहे या बन्द हो जाए, इससे क्या बनता-बिगड़ता है? यह अधिक अच्छा होगा, यदि लोगों को थोड़ी तकनीकी शिक्षा मिल सके, जिससे वे नौकरी की खोज में इधर-उधर भटकने के बदले किसी काम में लग सकें और जीविकोपार्जन कर सकें।’’ 
राष्ट्रीयता की भावना का विकास: विवेकानंद भारत की दुर्दशा से अत्यन्त ही मर्माहत थे। वे एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था का विकास करना चाहते थे जो भारतीय विद्यार्थियों में राष्ट्रीयता की भावना का विकास कर सके। वे कहते हैं- ‘‘ऐ वीर! साहस का अवलम्बन करो। गर्व से कहो, मैं भारतवासी हूँ और प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है। तुम चिल्लाकर कहो कि मूर्ख भारतवासी, ब्राह्मण भारतवासी, चाण्डाल भारतवासी, सभी मेरे भाई हैं। भारत के दीन-दुखियों के साथ एक होकर गर्व से पुकार कर कहो- ‘‘प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है, भारतवासी मेरे प्राण हैं, भारत के देवी-देवता मेरे ईश्वर हैं, भारत का समाज मेरे बचपन का झूला, जवानी की फुलवारी और बुढ़ापे की काशी है।’’ 
इस प्रकार शिक्षा के माध्यम से विवेकानंद भारतीयों के मध्य राष्ट्र के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना का विकास करना चाहते थे।
पाठ्यक्रम 
स्वामी विवेकानंद का यह मानना था कि हर राष्ट्र की कुछ विशेष गुणों के कारण अलग पहचान होती है। भारत राष्ट्र की विशिष्ट पहचान उसकी आध्यात्मिकता है। विवेकानंद के अनुसार धर्म शिक्षा की आत्मा है। विवेकानंद की धर्म की परिभाषा अत्यन्त व्यापक है। वे धर्म अन्तर्गत सम्प्रदाय विशेष को न मानकर नैतिक जीवन पद्धति को मानते हैं। वे पाश्चात्य शिक्षा को अधर्म के विस्तार का कारण मानते हैं। हृदय का विकास जहाँ मानव को आध्यात्मिक बनाता है वहीं मात्र बौद्धिक विकास उसे स्वाथ्री बनाता है।
विवेकानंद शिक्षा में आध्यात्म के साथ विज्ञान एवं तकनीकी की शिक्षा आवश्यक मानते हैं। स्वामी विवेकानंद का यह स्पष्ट तौर पर मानना था कि भारतीय आध्यात्म एवं पश्चिमी विज्ञान का समन्वय ही मानव कल्याण का सर्वाधिक विश्वसनीय आधार बन सकता है। स्वामी विवेकानंद का मानना था कि आधुनिक विज्ञान एवं तकनीकी तथा उद्योग की शिक्षा ने मानव के जीवन को आरामदायक बनाया है। पर अगर इसका विकास बिना नैतिक- आध्यात्मिक समन्वय के साथ हुआ तो यह मानव जाति के विनाश का कारण बन सकता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान स्वामी विवेकानंद की भविष्यवाणी सच हुई।
विवेकानंद की शिक्षा व्यवस्था में कला को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। वे मानते थे कि ‘‘कला हमारे धर्म का ही एक अंग है।’’ उन्होंने विद्यार्थियों, शिक्षकों एवं शिक्षाशास्त्रियों का ध्यान चित्रांकित पात्रों, नयनाभिराम साड़ियों आदि से लेकर कश्“ाक की झोपड़ियों तथा अनाज भरने के कोठारों तक खींचा। उन्हें जीवन का हर आयाम कलात्मक दिखता था और वे शिक्षा को कला की साधना का माध्यम बनाने पर जोर देते थे। स्वामी विवेकानंद भाषा की शिक्षा के संदर्भ में अत्यधिक उदार थे। वे संस्कृत भाषा की शिक्षा पर अत्यधिक जोर देते थे क्योंकि यही हमारे धर्म और संस्कृति की भाषा है। इसके साथ ही मातृभाषा की शिक्षा आवश्यक मानते थे। विज्ञान एवं तकनीक की उचित शिक्षा के लिए वे अंग्रेजी की भी शिक्षा महत्वपूर्ण मानते थे। जनसामान्य में शिक्षा के प्रसार हेतु विवेकानंद की शिक्षा-व्यवस्था में शारीरिक शिक्षा, खेलकूद और व्यायाम को उचित स्थान दिया गया है। वे नवयुवकों को गीता पढ़ने की बजाए फुटबाल खेलने का सुझाव देते थे। उनका मानना था कि अगर शरीर स्वस्थ होगा तो गीता भी बेहतर ढ़ंग से समझ में आयेगी। उन्होंने नवयुवकों को शक्ति का महत्व बताते हुए कहा- ‘‘शक्ति ही जीवन और कमजोरी मृत्यु है। शक्ति परम सुख है और अजर अमर जीवन है, कमजोरी कभी न हटने वाला बोध और यन्त्रणा है, कमजोरी ही मृत्यु है।’’
इस प्रकार शिक्षा के पाठ्यक्रम में स्वामी विवेकानंद ने प्राच्य धर्म, दर्शन और भाषा तथा पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान, तकनीक एवं औद्योगिक प्रशिक्षण को स्थान दिया। उन्होंने स्पष्ट रूप से यह महसूस किया था कि पाश्चात्य जगत के भौतिक ज्ञान से हम अपना भौतिक विकास कर सकते है और अपने देश के आध्यात्मिक ज्ञान से पश्चिमी जगत का कल्याण कर सकते है। इस प्रकार से स्पष्ट है कि पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानंद का दृष्टिकोण समन्वयवादी, आधुनिक और व्यापक था।
शिक्षण विधि 
स्वामी विवेकानंद के अनुसार ज्ञान प्राप्त करने की सर्वोत्तम विधि एकाग्रता है। वे कहा करते थे कि जितनी अधिक एकाग्रता होगी उतना ही अधिक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। उनका कहना था कि एकाग्रता के बल पर जूता पॉलिश करने वाला भी बेहतर ढ़ंग से जूता पॉलिश कर सकेगा एवं रसोइया भी अधिक अच्छा भोजन बना सकेगा। एकाग्रता तभी आ सकती है जब मनुष्य में अनासक्ति हो। स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि तथ्यों का संग्रह शिक्षा नहीं है। सच्ची शिक्षा है तन को अनासक्ति द्वारा एकाग्र करने की क्षमता विकसित करना। इससे सभी तरह के तथ्यों का संग्रह किया जा सकता है, समस्याओं को समझा जा सकता है और उनके निराकरण का मार्ग ढूंढ़ा जा सकता है। स्वामी विवेकानंद लौकिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार के ज्ञान के लिए योग विधि को अपनाने पर बल देते थे। भौतिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए जहाँ अल्प योग (अल्पकाल की एकाग्रता) पर्याप्त है वहीं आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए पूर्ण योग (दीर्घकालीन एकाग्रता) आवश्यक है। स्वामी विवेकानंद शिक्षा को प्रत्येक बालक-बालिका का जन्म सिद्ध अधिकार मानते थे। खोये हुए सांस्कृतिक एवं भौतिक वैभव को फिर से प्राप्त करने के लिए जनसाधारण की शिक्षा को वे आवश्यक बताते थे। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा- ‘‘मेरे विचार में जनसाधारण की अवहेलना राष्ट्रीय पाप है और हमारे पतन का कारण है। जब तक भारत की सामान्य जनता को एक बार फिर से शिक्षा, अच्छा भोजन और अच्छी सुरक्षा प्रदान नहीं की जायेगी, तब तक सर्वोत्तम राजनीतिक कार्य भी व्यर्थ होंगे।’’ वे शिक्षा की सुविधा सभी के लिए समान रूप से उपलब्ध कराना चाहते थे। स्वामी विवेकानंद के जीवन एवं शिक्षा सम्बन्धी विचार आज की परिस्थितियों में भी उतनी ही उपयोगी है जितनी उनके समय में थी। आज वेदान्त और विज्ञान के समन्वय की आवश्यकता और अधिक है। स्वामी विवेकानंद का दर्शन मानव मात्र का कल्याण के लिए है। उन्होंने स्वंय कहा था- ‘‘हम मानव-निर्माण का धर्म चाहते हैं। हम मनुष्य का निर्माण करने वाले सिद्धान्त चाहते हैं और हम मानव निर्माण की सर्वागींण शिक्षा चाहते हैं।’’
शिक्षक का दायित्व 
विवेकानंद ने कहा कि शिक्षक का कार्य मार्ग से रूकावटें हटाना है। अर्थात् व्यक्ति के अन्तर्गत ब्रह्मत्व की शक्ति पहले से ही विद्यमान है, शिक्षा का कार्य उसे उजागर करना है। सर्वजनीन और सर्वसुलभ शिक्षा प्रसार के लिए स्वामी जी ने शिक्षा देने हेतु ऐसे अध्यापकों की अपेक्षा की जो सदाचारी हों, त्यागी हों और उच्च भाव से ओत-प्रोत हों। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि भारत में शिक्षा ‘ज्ञानदान’ या ‘विद्यादान’ अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है और यह दानी पुरूषों द्वारा होता है। अत: ज्ञान प्रसार का कार्य निस्वार्थ त्यागी पुरूषों के कन्धों पर ही होना चाहिए। शिक्षकों को निस्वार्थ भाव से शिक्षा देनी चाहिए न कि धन, नाम या यश सम्बन्धी स्वार्थ की पूर्ति के लिए। शिक्षकों को मानव-जाति के प्रति विशुद्ध प्रेम से प्रेरित होना चाहिए क्योंकि स्वार्थ पूर्ण भाव, जैसे लाभ अथवा यश की इच्छा, इसके अभीष्ट उद्देश्य को नष्ट कर देगा। शिक्षा के लिए विवेकानंद गुरूगृह प्रणाली के पोषक थे। उनका मत था कि विद्यालयों का पर्यावरण एवं वातावरण गुरूगृह की ही तरह शुद्ध होना चाहिए, जहाँ व्यायाम, खेल-कूद, अध्ययन-अध्यापन के साथ भजन-कीर्तन और ध्यान की भी व्यवस्था हो। वे कहते है- ‘‘मेरे विचार के अनुसार शिक्षा का अर्थ है गुरूकुल-वास। शिक्षक के व्यक्तिगत जीवन के बिना कोई शिक्षा हो ही नहीं सकती। जिनका चरित्र जाज्वल्यमान अग्नि के समान हो, ऐसे व्यक्ति के सहवास में शिष्य को बाल्यावस्था के आरम्भ से ही रहना चाहिए, जिससे कि उच्चतम शिक्षा का सजीव आदर्श शिष्य के सामने रहे।’’
विद्याथ्री के कर्तव्य 
शिक्षाथ्री के लिए स्वामी जी कठोर नियमों का पालन एवं इन्द्रिय निग्रह पर जोर देते थे, जिससे छात्र शिक्षक में श्रद्धा रखकर सत्य को जानने का प्रयास करे। उन्होंने कहा ‘‘शिक्षक के प्रति श्रद्धा, विनम्रता, समर्पण तथा सम्मान की भावना के बिना हमारे जीवन में कोई विकास नहीं हो सकता। उन देशों में जहाँ शिक्षक-शिक्षाथ्री सम्बन्धों में उपेक्षा बरती गई है, वहाँ शिक्षक एक व्याख्याता मात्र रह गया है। वहाँ शिक्षक अपने लिये पाँच डालर की आशा रखने वाले और छात्र, शिक्षक के व्याख्यान को अपने मस्तिष्क में भरने वाले रह जाते हैं। इतना कार्य सम्पन्न होने पर दोनों अपनी-अपनी राह पर चल देते हैं। इससे अधिक उनमें कोई सम्बन्ध नहीं रह गया है।’’ विवेकानंद विद्याथ्री-जीवन में ब्रह्मचर्य पालन पर जोर देते हैं। उनके अनुसार इस काल में विद्याथ्री को मन, वचन और कर्म से ब्रह्मचर्य-पालन करना चाहिए। इससे संकल्प-शक्ति दृढ़ होती है तथा आध्यात्मिक शक्ति तथा वाग्मिता का विकास होता है। नारी शिक्षा स्वामी विवेकानंद स्त्री-पुरूष समानता के समर्थक थे। इसलिए महिलाओं की शिक्षा भी उनकी शिक्षा सम्बन्धी योजना में महत्वपूर्ण विषय है। उनका मानना था कि देश की उन्नति के लिए महिलाओं की शिक्षा अत्यन्त आवश्यक है। महिलाओं की शिक्षा के लिए उन्होंने तपस्वी, ब्रह्मचारिणी तथा त्यागी महिलाओं को प्रशिक्षण देना आवश्यक माना ताकि ऐसी महिलायें दूसरी महिलाओं को सम्यक शिक्षा प्रदान कर सकें। महिलाओं की समुचित शिक्षा के लिए विवेकानंद ने पुरूषों की भाँति महिलाओं के लिए अलग संघ स्थापित करने पर जोर दिया। उनका विचार था कि मठों की स्थापना के माध्यम से वहाँ प्रशिक्षित ब्रह्मचारी स्त्रियाँ, सन्यासी और सुशिक्षित बन कर नारी जाति को शिक्षा देने का प्रयास करेंगी। शिक्षित स्त्रियाँ भले-बुरे का ज्ञान प्राप्त कर सकेंगी और स्वतंत्र तथा स्वाभाविक रूप से प्रगतिपथ पर अग्रसर हो सकेंगी। पुरूषों की तरह स्त्रियों को भी भाषा, गणित, विज्ञान, सामाजिक विषयों तथा लौकिक विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिए, जिससे वे दूसरों तक सम्यक रूप से प्रसारित कर सकें। वे कहते हैं कि ‘‘जिस तरह माता-पिता अपने पुत्रों को शिक्षा देते है उसी तरह उन्हें पुत्रियों को भी शिक्षित करना चाहिए। जबकि हम उन्हें प्रारम्भ से ही दूसरे पर निर्भर रहकर परतंत्र रहने की शिक्षा देते हैं।’’ विवेकानंद की दृष्टि में मिलनी चाहिए कि वे दूसरों पर निर्भर रहने की बजाय स्वयं अपनी समस्याओं का निराकरण कर सकें। वे लड़कियों की शिक्षा के केन्द्र में धर्म को रखने का सुझाव देते हैं। इसके अतिरिक्त इतिहास एवं पुराण, गृह-व्यवस्था, कला एवं शिल्प, बच्चों की उचित देखभाल, पाक कला आदि की शिक्षा देने का सुझाव देते हैं। वे कन्याओं से ‘सीता’ के उज्ज्वल चरित्र से शिक्षा लेने को कहते हैं।
शिक्षा का प्रसार स्वामी विवेकानंद ने राष्ट्र और मानव की समस्याओं का निदान शिक्षा को माना। वे शिक्षा को समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति के प्रभावशाली माध्यमों के प्रयोग पर बल दिया। भ्रमणकारी सन्यासियों द्वारा शिक्षा 
स्वामी विवेकानंद की यह योजना श्रमण प्रकृति से मिलती-जुलती है। उन्होंने कहा कि शिक्षा के प्रसार का कार्य उन हजारों सन्यासियों के माध्यम से हो सकता है जो गाँव-गाँव धर्मोपदेश करते हुए घूमते रहते हैं। उन्हीं के शब्दों में ‘‘हमारे देश में एकनिष्ठ और त्यागी साधु हैं जो गाँव-गाँव धर्म की शिक्षा देते फिरते हैं। यदि उनमें से कुछ लोगों को शैक्षिक विषयों में भी प्रशिक्षित किया जाये तो गाँव-गाँव दरवाजे जाकर वे न केवल धर्म की ही शिक्षा देंगे बल्कि ऐहिक शिक्षा भी दिया करेंगे।’’ उन्होंने उदाहरण देते हुए स्पष्ट किया कि यदि इनमें से एक दो शाम को साथ में एक मैजिक लैन्टर्न, एक-एक ग्लोब और कुछ नक्शे आदि लेकर गाँव में जायें तो इनकी सहायता से वे अनपढ़ों को बहुत कुछ गणित, भूगोल, नक्षत्र-विज्ञान, ज्योतिष आदि की शिक्षा दे सकते हैं। ये सन्यासी विभिन्न देशों के बारे में कहानियाँ सुनाकर निर्धन लोगों को नाना प्रकार का समाचार दे सकते हैं जिनसे उनका ज्ञानवध्र्धन हो सके। बातचीत के माध्यम से सीधी सूचना के कारण ज्यादा प्रभावकारी जानकारी दी जा सकती है जो शायद पुस्तकों के माध्यम से संभव न हो सके। विवेकानंद ने गरीब लड़कों की आर्थिक मजबूरी को ध्यान में रखते हुए स्पष्ट किया कि गरीब लड़के पाठशाला जाने की बजाय अर्थोपार्जन हेतु खेतों में माता-पिता की सहायता करने अथवा किसी अन्य तरीके से धन अर्जित करना ज्यादा पसन्द करते हैं, उनके लिए ऐसे सन्यासियों का घर-घर जाकर शिक्षा देना ज्यादा सराहनीय कदम होगा। स्वामी जी शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने हेतु नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था चाहते थे। स्वामी जी मानते थे कि शिक्षा देने का कार्य त्यागी और तपस्वी पुरूषों का है। उन्हें लोभ से दूर रहते हुए ऐसे बालकों के पास पहुँचकर शिक्षा प्रदान करनी चाहिए जो आर्थिक अभाव के कारण शिक्षा ग्रहण करने हेतु अध्यापक के पास न आ पायें। स्वामी जी की मान्यता थी कि अशिक्षित जनसमूह को साक्षर बनाने की अपेक्षा जीवनोपयोगी शिक्षा देना अधिक आवश्यक है। इसलिए स्वामी जी औपचारिक शिक्षा के बजाय अनौपचारिक शिक्षा पर अधिक जोर देते थे।
धन्यवाद!!

आशा सूर्यवंशी
बी.ए. द्वितीय वर्ष
महाविद्यालय चम्बा

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