वर्तमान में स्वामी विवेकानंद के विचारों की प्रासंगिकता : राहुल बाली



"अगर हजार दोष होने के बावजूद में खुद से प्रेम कर सकता हूँ तो कुछ एक दोषों के लिए मैं खुद से नफरत क्यों करूँ "

कुछ इस तरह की विचारधारा से भरा से वो शख्स या यूँ कहे कि समझ से परे था वो शख्स । 

जब पराधीनता के नामपाठ में माँ भारती और उसकी प्राणशक्ति हिंदुत्व आत नात करते हुए अंतिम सांसे गिन रहे थे तो शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन में आनंद स्वरूपी प्रचंड मार्कण्ड के मुखारबिंद से वेदान्त रूपी गंगा प्राण शक्ति बनकर प्रभावित हो उठी जिसमे स्वाधीनता के मार्ग प्रशश्त करने के साथ साथ हिंदुत्व की पताका को धर्मकष्ट में आरुह कर दोदुह मान लिया , मगर जब आज पुनः मेरे देश को खण्ड खण्ड करने के नारे लग रहे है , गलत मानसिकता वाले लोग हिंदुत्व को गाली दे रहे है , आसीन में पल रहे विषधर , संसद के गलियारे में त्याग और वीरता के भगवा रंग के आतंकी बता रहे है , कोई पड़ोसी गन्दी दृष्टि जमाए दहशत फैला रहे है , तो धर्म और धरा के प्रति भक्ति भाव उत्पन करने हेतु स्वामी विवेकानंद के सिद्धन्त प्रसंसगिता का शोखनाथ करने आ रहे है । 

स्वामी जी का चरित्र धरा के समान धैर्यशील , गंगा के समान प्रवित्र और सूर्य से तेशवान रहता रहा है ।

एक ससमरन के अनुसार उनके जैसा तेजस्वी पुत्र पाने की चाह में एक महिला उनके समक्ष विवाह बंधन के प्रस्ताव रखती है तो विवेकानंद का चरित्र देखिए तपस्या का तेज देखिए कि नारी की पाने के प्रताव को अस्वीकार कर दिया और आने जैसा पुत्र आने की चाह को स्वीकार कर दिया । मगर जब कोई गुड़िया की रूबरू को तार तार कर रहा है , जब कोई सिक्को की खनक के लिए क्या क्या नहीं कर रहा तब स्वामी जी के आदर्शों द्वारा आज भी पुनः वास्तविकता के धरातल पर लाने का प्रयास हो रहा है ।


मैंने पढ़ा था (वाक्य ठीक ठीक याद नहीं ) की विवेकानंद ने कहा था की मुझे 50 युवा मिल जाए तो मैं नव राष्ट्र निर्माण कर सकता हूँ...... पर तब उन्हें इतने युवा नहीं मिले ........ पर आज अगर पूछा जाए तो कई लाख लोग कहते मिल जाएंगे की यदि तब हम होते तो हम उनका साथ देते.......

पर शायद नहीं ......... तब हम भी इंतज़ार करते की कब वो परमधाम पहुँच जाएँ ओर हम उनको पूज्य बना कर हर झंझट से बच जाए........ क्योकि जिंदा व्यक्ति के सामने झूठ नहि चल सकता ...... पर उनकी तसवीर के सामने न जाने क्या क्या हम कर जाते हैं....... तो ये जरूरी नहीं की विवेकानंद जी के राष्ट्र निर्माण के लिए उनका पुनः आगमन आवश्यक है.......... आवश्यकता है तो उस संकल्प की ओर उनके दिखाये मार्ग पर चल कर अपनी धर्म और संस्कृति की रक्षा की । 


शिक्षा कैसी हो, इसके बारे में स्वामी विवेकानंद कहते हैं, ‘शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि दिमाग में कई ऐसी सूचनाएं एकत्रित कर ली जाएं जिसका जीवन में कोई इस्तेमाल ही नहीं हो। हमारी शिक्षा जीवन निर्माण, व्यक्ति निर्माण और चरित्र निर्माण पर आधारित होनी चाहिए। ऐसी शिक्षा हासिल करने वाला व्यक्ति उस व्यक्ति से अधिक शिक्षित माना जाएगा जिसने पूरे पुस्तकालय को कंठस्थ कर लिया हो। अगर सूचनाएं ही शिक्षा होतीं तो फिर तो पुस्तकालय ही संत हो गए होते।’ लेकिन हमारी शिक्षा व्यवस्था की बच्चों को रट्‍टू तोता बनाने वाली है जिसमें दिमाग का उपयोग ही नहीं किया जाता है।

विदेशों में भारतीय संस्कृति की सुगंध बिखरने वाले स्वामी विवेकानन्द एक ऐसे आध्यात्मिक गुरु, जिन्होंने धर्म को व्यवहारिक बनाया तथा भारतीय सभ्यता के निर्माण और संस्कृति के प्रसार के लिए हमेशा समर्पित रहे। ये सही अर्थ में युवाओं के प्रेरणा स्रोत और युवा भारत के स्वप्नदृष्टा थे। आज हम ज्ञान आधारित समाज की बात कर रहे हैं किन्तु स्वामी जी ने यह कहते हुए कि ज्ञान सदैव वर्तमान है, हम केवल उसका अविष्कार करते हैं, ज्ञान की महिमा बहुत पहले समझा दी थी। आज सब तरफ उद्यमिता की बात जोर-शोर से की जा रही है पर याद रहे की स्वामी जी ने अपने समय में ही कह दिया था कि पवित्रता, दृढ़ता और उद्यम ये तीन गुण मैं एक साथ चाहता हूँ। जब तक जीना तब तक सीखना, अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है।



विवेकानन्द प्रबल मानवतावादी थे। इन्हीं भावनाओं से अभिभूत होकर उन्होंने कहा - ‘‘एकमात्र भगवान जिसमें मैं विश्वास करता हूँ वह है सभी आत्माओं का कुल योग और सबसे पहले मेरे भगवान सभी जातियों के कुष्ठपीड़ित, दरिद्र हैं।’’ इसी सन्दर्भ में उन्होंने कहा - ‘‘जब तक करोड़ों लोग भूख और अज्ञान से पीड़ित हैं तब तक मैं उस हर व्यक्ति को देशद्रोही समझूँगा जो उनके खर्च से शिक्षित बनकर उनके प्रति तनिक भी ध्यान नहीं देता।’’

                       स्वामी जी ने अपनी मानवतावादी विचार धारा के कारण हीं ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की। आज भी मिशन के कार्य सराहनीय हैं। मेरी मान्यता है कि सम्पूर्ण राष्ट्र में मानवतावादी विचारधारा को बल मिलना चाहिए तभी भारतवर्ष विकसित कहा जा सकता है।

                           स्वामी जी का इहलौकिक धर्म आत्म-सहायता एवं पौरूष-शक्ति के निर्माण पर बल देने वाला है। उनका कथन - ‘‘ आज हमारे देश को आवश्यकता है लोहे के स्नायुओं एवं इस्पात की नाड़ियों की।’’  यह कथन क्या आज प्रासंगिक नहीं है? मित्रो! अक्षरशः प्रासंगिक है। विल्कुल प्रासंगिक है। ‘दद्रिनारायण’ की परिकल्पना विषमता को दूर करने वाली है। इसे अपनाना आज का ‘राष्ट्र धर्म’ और ‘राज धर्म’ दोनों होना चाहिए। स्वामी जी का यह कथन -‘‘ निम्न वर्गो को मत भूलो, उन्हें मत भूलो जो अज्ञानी, दरिद्र और अनपढ़ हैं - मोची और मेहतर हैं, वे भी तुम्हारे हीं रक्त-मांस हैं, तुम्हारे हीं बन्धु हैं।’’ उनकी यह उक्ति माननीय सांसदों, विधायकों और तथाकथित जनप्रतिनिधियों को हीं नहीं प्रख्यात उद्योगपतियों, पूँजीपतियों एवं बुद्धिजीवियों को भी अपनाना होगा अन्यथा जो वर्Ÿामान में हो रहा है वह कितना दुःखद है, यह किसी से छिपा नहीं। स्वार्थ को त्यागना और परमार्थ पर चलना ही आज भी श्रेयष्कर है।

                              अन्ततः कहा जा सकता है कि स्वामी जी के विचार आज न केवल प्रासंगिक हैं वरन् उपादेय भी हैं। भारतवर्ष का स्वर्णिम भविष्य इन्हीं मार्गो से होकर गुजरता है, अतएव विवेकानन्द के पथ का हमें अनुगामी बनना पड़ेगा। निश्चय ही इस पथ पर चलकर  हम हर समस्याओं से निज़ात पा सकते हैं क्योंकि भारतीय संस्कृति भी यही उपदेश करती है -

‘‘ अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।’’

इस पर चलकर ही हम गर्व से कह सकते हैं -

‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः            सर्वे सन्तु निरामयाः।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु   मा कश्चिद् दुःखभाग भवेत्।।’’

Rahul bali 
Rajiv Gandhi Government Degree College, Kotshera 

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