Swami Vivekananda: The global enunciator of Indian culture : Suresh Kumar

 

कम्युनिस्ट नेता हीरेन मुखर्जी ने स्वामी विवेकानन्द जी के बारे में कहा था, " विवेकानन्द जी एक ऐसे संन्यासी थे जिन्होंने अपने देशवासियों की दुर्दशा पर खून के आंसू बहाए थे। उन्होंने मुक्ति के लिए अपना घर-परिवार त्यागा परन्तु उसी मुक्ति को देशवासियों के लिए त्याग दिया। यही कारण है कि मेरे जैसा नास्तिक व्यक्ति भी उस महापुरुष के आगे नतमस्तक हो जाता है।" विश्व इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता जहां पर स्वामी विवेकानन्द जी की तरह किसी ने मोक्ष के लिए घर-परिवार सब कुछ छोड़ दिया और मातृभूमि कि सेवा के लिए उस मोक्ष को भी छोड़ दिया। इस दृष्टि से स्वामी विवेकानन्द विश्व इतिहास में अद्वितीय महापुरुष हैं। स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी, 1863 ई. को कलकत्ता में हुआ। उस समय 1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम की असफलता के बाद पूरा देश निराशा में डूबा था। आधी दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेजों का दमन भरा कठोर शासन और ईसाई मिशनरियों के प्रबल प्रचार के कारण उस समय भारत निराशा और हीन भावना में सो रहा था। पूरी दुनिया में ईसाई मिशनरियों ने प्रचार किया था कि भारत एक पिछड़ा, अंध विश्वासी, अनपढ़, जाहिल देश है। वेद गडरियों के गीत हैं। यह ही प्रचार करके ईसाई मिशनरी सेवा के नाम पर विदेशों में धन इकट्ठा करते थे और भारत में ईसाइयत को फैलाते थे। ऐसे विकट समय में सारे भारत का गहन अध्ययन करने के बाद एक युवा संन्यासी 12 दिसंबर, 1892 के दिन कन्याकुमारी के तट पर खड़ा था। कन्याकुमारी भारत का दक्षिणी छोर है। उस पर खड़े हो कर उस सन्यासी के मन और मस्तिष्क में उसी प्रकार की हिलोरें उठ रहीं थी जैसे सामने हिन्द महासागर की छाती पर लहरें उठ रही थीं। किनारे पर एक किश्ती अाई। संन्यासी ने किश्ती खड़ी की और कहा कि समुद्र में कुछ गज दूरी पर जो चट्टान दिखाई दे रही है किश्ती वाला संन्यासी को लेकर उस पर चले। किश्ती वाले ने पैसे मांगे। संन्यासी की जेब खाली थी। उस के दिल की छटपटाहट बढ़ गई। उसने कपड़े उतारे और समुद्र में छलांग लगा दी और थोड़ी देर में, कुछ सौ गज की दूरी पर जो चट्टान थी, संन्यासी उस पर पहुंच गया। सायंकाल का समय था। सूर्य भगवान दिन भर की यात्रा करने के बाद वापिस जा रहे थे। भारत के दक्षिणी छोर पर समुद्र तट से कुछ हट कर समुद्र के बीच चट्टान पर बैठे हुए संन्यासी ने सारे भारत को देखा और भारत की गरीबी और दरिद्रता पर उसकी आंखें भर आई और आंसू टप-टप कर चट्टान पर गिरने लगे। वह सोचता रहा कि यह भारत, यह करोड़ों देशवासियों का भारत, जिसमें गरीबी और दरिद्रता है। उसका उद्धार कैसे होगा?

पूरे तीन दिन और तीन रात बिना कुछ खाए-पिए संन्यासी उस चट्टान पर विचारमग्न बैठा रहा। किसी ने उसे देखा नहीं, किसी ने उसके अंतर की दशा को पहचाना नहीं। तीन दिन की उस लगातार विचार समाधि के बाद संन्यासी ने राष्ट्र के रोग का निदान पा लिया और दिल ही दिल उसका उपाय भी खोज निकाला। उस चट्टान पर खड़े होकर चारों तरफ अपनी नजर दौड़ा कर उसने जीवन-कर्म तह कर लिया। समुद्र की उछलती लहरों के ऊपर पश्चिम की ओर कितनी देर सन्यासी निहारता रहा और तब संन्यासी का अंतर एक नई आशा विश्वास और उत्साह से बोल उठा, "मैंने मातृभूमि के उद्धार का उपाय ढूंढ लिया है अब उसी में जीवन लगाऊंगा....... नहीं-नहीं मुझे मोक्ष नहीं चाहिए। जब तक भारत का प्रत्येक मनुष्य भरपेट भोजन नहीं कर पाता। जब तक मातृभूमि वेदांत के मधुर गान से गूंज नहीं जाती। तब तक हे प्रभु! मुझे मोक्ष नहीं चाहिए। में बार- बार जन्म लूं और इन करोड़ों भारतवासियों की सेवा करूं। यह ही मोक्ष है।" रामकृष्ण परमहंस का शिष्य स्वामी विवेकानन्द जो धार्मिक संन्यासी था, उस चट्टान पर बैठ कर देशभक्त संन्यासी बन गया। वहीं उन्होंने निर्णय किया कि मैं पश्चिम जाऊंगा, विदेशों में जाऊंगा, वहां पर भारत के महान धर्म का प्रचार करूंगा और ये देखूंगा कि विदेशों ने अपनी गरीबी को कैसे दूर किया है ताकि मैं भारत की गरीबी को दूर कर सकूं। और यह निश्चय करने के बाद संन्यासी उस निश्चय को पूरा करने के लिए आगे बढ़ गया। उसके बाद आया 31 मई, 1893 का वह दिन जब एक जहाज़ पर बैठ कर स्वामी विवेकानन्द विदेशों की ओर चले। इस 31 मई से ठीक 36 साल पहले 1857 में भारत की जनता ने एक महान राजनीतिक क्रांति की थी और आज उस के 36 साल बाद 31 मई, 1893 को यह सन्यासी विश्व के अंदर सांस्कृतिक क्रांति का बिगुल बजाने के लिए आगे बढ़ रहा था। स्वामी विवेकानन्द विश्व धर्मों की एक महान् सभा में, जो शिकागो में हो रही थी, व्याख्यान देने के लिए गए। जब इस जगह स्वामी विवेकानन्द उतरे, उनका वेश भारत के एक संन्यासी का था और विदेशों में उस समय भारत के व्यक्ति के प्रति एक बड़ी हीन भावना थी। ज्यों ही स्वामी विवेकानन्द वहां उतरे, उन्हें कुछ युवकों ने देखा। एक युवक उनको देख कर कहने लगा, "यह कैसा जंगली व्यक्ति लगता है।" स्वामी जी वहीं खड़े हो गए। उन्होंने उस व्यक्ति को कहा, " My brother, it is only in your country that washer man and tailor man make a man gentleman. In my country it is soul that makes a man gentleman." और इन शब्दों को सुन कर वह व्यक्ति हतप्रभ हो गया।

विश्व धर्म सभा में स्वामी विवेकानन्द पहुंचे। इससे पहले स्वामी विवेकानन्द कभी किसी बड़ी सभा में नहीं बोले थे और वहां दुनिया के बहुत बड़े- बड़े व्याख्याता उस धर्म के बडे़ मंच पर बैठे थे। कुछ लोग बहुत तैयारी करके आए थे। व्योरे की पुस्तकें उनके पास थीं। लेकिन विवेकानन्द जी, गेरुएं वस्त्र पहने, खाली हाथ मंच पर पहुंचे। उनसे बोलने के लिए जब कहा गया तो वह मंच पर खड़े हुए और उन्होंने अपना भाषण प्रारंभ किया इन शब्दों के साथ, " सिस्टर्स एंड ब्रदर्स ऑफ अमेरिका।" यह शब्द उनके मुंह से अभी निकले ही थे कि परिचय के प्रबुद्ध नागरिकों की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच झूम उठे। ऐसा लगा कि पूरा पश्चिम खुशी से पागल हो गया है। यह बात स्वामी विवेकानन्द और भारत के व्यक्ति के लिए साधारण थी। परन्तु यह बात पश्चिम के लिए एक विशेष बात थी। दूर देश से आया यह सन्यासी पश्चिम के लोगों को बहन और भाई कह रहा है, यह अपने आप में इतने विस्मय और खुशी की बात थी कि कितने ही मिनट तक वह हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा था। उसके बाद जब भारत के धर्म कि व्याख्या स्वामी विवेकानन्द जी ने की तो सारा पश्चिम इस युवा संन्यासी के चरणों में झुक गया। पश्चिम के लोग इससे पहले बहुत से धर्मों के व्याख्याता के मुंह से एक ही बात सुन चुके थे और वह यह थी कि लोग पापी है, पाप के उद्धार का एक ही रास्ता है। हर धर्म के लोग यही कहते थे कि दुनिया के लोगों तुमने बहुत पाप किए हैं, हमारा धर्म स्वीकार करो, हम तुम्हें इस पाप से निकलेंगे। लेकिन भारत का यह महान् संन्यासी जब विश्व की इस धर्म सभा के मंच पर खड़ा हुआ तो उसने खुले शब्दों में यह बात कही कि मेरा देश पाप की भाषा नहीं जानता। उन्होंने कहा कि मेरी दृष्टि में कोई पापी नहीं है। उन्होंने कहा कि आप किस धर्म में हैं, यह प्रश्न नहीं है। आप को अपना धर्म छोड़ कर हिन्दू धर्म स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं। आप जिस धर्म में है, उस धर्म में रह कर ही भगवान की प्राप्ति कर सकते हैं। उन्होंने कहा जिस प्रकार भिन्न- भिन्न नदियां अलग - अलग रास्ते से चल कर समुद्र की ओर जाती हैं ठीक उसी तरह भिन्न- भिन्न धर्म अपने रास्ते से चल कर भगवान की ओर जाते हैं। यह बात पश्चिम के लिए इतनी बड़ी थी कि सारा पश्चिम उनके चरणों में झुक गया। पश्चिम के लोगों के कान पाप, पाप, और पाप की भाषा सुन कर पक चुके थे। लेकिन विश्व का यह एक ऐसा धर्म है जो पाप की भाषा नहीं जानता। दूसरे ही दिन न्न्यूयोर्क हेराल्ड ने स्वामी विवेकानन्द की फोटो प्रथम पृष्ठ पर दी थी और उसके नीचे लिखा था," He is undoubtedly the greatest figure in the Parliament of Religions. After hearing him, we feel how foolish it is to send missionaries to such a learned nation." अर्थात् विवेकानन्द  विश्व धर्म में सबसे बड़ा वक्तित्व है। इनका भाषण सुनकर मुझे लगता है कि भारत जैसे देश में अपने प्रचारक भेजना कितनी मूर्खता की बात होगी। स्वामी विवेकानन्द इसके बाद पश्चिम के कितने ही देशों में घूमें और वह दिन तो भारत के इतिहास का एक ऐतिहासिक दिन था जब स्वामी विवेकानन्द उन लोगों के देश में गए, जो लोग उस समय भारत पर राज करते थे। ब्रिटेन में स्वामी विवेकानन्द का स्वागत कुछ निश्चित भावनाओं से हुआ। कुछ लोग यह समझते थे कि यह भारत का एक साधारण सा संन्यासी है और भारत अंग्रेजों का गुलाम है। लेकिन स्वामी विवेकानन्द वहां पहुंचे और भारत के धर्म की जो गहन और महान् व्याख्या उन्होंने की तो ब्रिटेन भी उनके चरणों में नतमस्तक हो गया। ऐसी बात नहीं है कि वह केवल धर्म की बात किया करते थे। एक स्थान पर उन्होंने अंग्रेजों के सम्बन्ध में कहा था कि अंग्रेज़ों ने भारत के धर्म, भारत की संस्कृति और भारत की जनता के साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है। उनके शब्दों में " यदि भारत के सभी लोग खड़े हो जाएं और हिन्द महासागर की सारी कीचड़ उठा कर उन लोगों पर दें तो भी यह उस पाप का सौवां हिसा भी नहीं होगा जो अंग्रेजों ने भारत के साथ किया है।"

स्वामी विवेकानन्द विदेशों में लगभग चार वर्ष तक रहे। उन्होंने स्थान - स्थान पर जा कर वेद का, भारत का प्रचार किया बहुत से लोग उनके शिष्य बन गए। उन्होंने समितियां बनाई, वेद की कक्षाएं प्रारंभ कीं। कितने ही लोग उनके साथ भारत आने को तैयार हो गए। उन्होंने विदेशों में भारतीयता का महान् प्रचार किया जिस के कारण विदेशियों की आंखे खुल गईं। उस समय तक विदेशों में भारत को एक असभ्य, धर्मभीरु, जाहिल और पिछड़ा हुआ देश समझा जाता था। स्वामी विवेकानन्द के महान् प्रचार के कारण सारे विश्व की आंखें खुल गईं और उनको लगा कि भारत राजनीतिक तौर पर भले ही गुलाम हो लेकिन आज भी भारत के पास इतनी महान् सांस्कृतिक धरोहर विद्यमान है कि वह सारे विश्व के सांस्कृतिक जीवन का वह गहन मूल्य दे सकता है जिसके निकट भी अभी तक विश्व नहीं पहुंचा है।

चार वर्ष व्यतीत करने के बाद स्वामी विवेकानन्द भारत की ओर लौटे और वह दिन, जब चार वर्ष की यात्रा पूरी करने के बाद स्वामी विवेकानन्द का जहाज़ भारत की धरती के निकट पहुंचने लगा, उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण दिन था। बहुत दूर से स्वामी विवेकानन्द भारत की धरती की ओर देखने लगे। उनका जहाज़ तट के साथ लगा। वह जहाज़ से उतरे। उनका स्वागत करने के लिए बहुत से शिष्य आये थे क्योंकि जब स्वामी विवेकानन्द भारत से गए थे तब वह एक साधारण सन्यासी थे। लेकिन चार वर्षों के बाद भारत वापिस आ रहे थे तो एक विश्व विख्यात धर्म प्रचारक बन चुके थे। तट पर बहुत से लोग पुष्प हार लेकर उनका स्वागत करने के लिए खड़े थे लेकिन स्वामी विवेकानन्द ज्यों ही भारत की धरती पर पहुंचे, वह दौड़े और चिल्ला पड़े, " मां, मां, भारत मां मैं! तुम से कितनी दूर, कितनी देर, कितनी दूर रहा हूं।" एक बच्चे कि तरह जो बहुत देर के बाद मां की गोद में बैठता है, विवेकानन्द भारत की धरती में लोट - पोट हो गए। इस के बाद कुछ समय भारत में रहने के बाद दूसरी यात्रा उन्होंने की।

स्वामी विवेकानन्द आधुनिक भारत के निर्माता हैं। एक ऐसे विरल व्यक्तित्व हैं जिसने अपने जीवन काल के 39 वर्ष की अल्पायु में इस देश के लोगों के अंदर न केवल आत्मविश्वास का भाव जागृत किया बल्कि अपने देश, धर्म, पूर्वज, इतिहास के प्रति स्वाभिमान का जागरण किया। उनके द्वारा की गई वैचारिक और सांस्कृतिक क्रांति के आगाज़ के कारण भारत को पुनः विश्वगुरु के रूप में देखा जाने लगा। स्वामी विवेकानन्द विदेशों में भारत के प्रथम धर्म प्रचारक थे जिन्होंने विश्व के सामने भारत की संस्कृति की वास्तविक आत्मा को खोला, रखा और प्रतिष्ठा बनाई। उनके जीवनी लेखक के शब्दों में - " वह साधारण सन्यासी एक महान् सुधारक, कुशल संगठक और एक महान् राष्ट्र - निर्माता बन गया। उसने एक ऋषि की दृष्टि से यह समझ लिए कि भारत अपने महान् गौरव से पतन के गर्त में क्यों आ पड़ा है।"

आज के परिप्रेक्ष्य में स्वामी विवेकानन्द के विचार और भी ज्यादा प्रासंगिक हैं। स्वामी विवेकानन्द भारत की गरीबी, भुखमरी और लाचारी को देख कर इतने आहत हुए थे कि उन्होंने यहां तक कह दिया कि भारत के जो लोग देश के साधनों का उपयोग करके पढ़ - लिख कर संपन्न हो जाते हैं परन्तु देश के गरीबों के लिए न कभी कुछ सोचते है, न कुछ करते हैं वे देशद्रोही हैं। आज से लगभग 120 वर्ष पहले एक संन्यासी इतने कठोर शब्द कह चुका है - यह सोच कर हैरानी होती है। वर्तमान भारत में सर्वांगीण विकास की चुनौती हमारे समक्ष है। एक अोर हम अनेक क्षेत्रों विशेष कर विज्ञान और तकनीक में विश्व के अग्रणी देशों में शामिल हैं दूसरी ओर निर्धनता, भुखमरी, कुपोषण, बीमारी, बाल मृत्युदर, धार्मिक आडंबर और पाखंड में भी विश्व प्रसिद्ध हैं। आज भारत में एक तरफ अमीरी चमकती जा रही है और प्रतिदिन गरीबी सिसकती जा रही है। आज़ादी के बाद भारत के विकास की सबसे बड़ी त्रासदी यही रही कि सामाजिक न्याय नहीं हुआ। एक खुशहाल भारत नहीं चार भारत बन गए। एक लूटने वालों का मालामाल भारत, दूसरा खुशहाल भारत, तीसरा सामान्य भारत और चौथा भूखा भारत। इससे बढ़ कर शर्म की बात क्या हो सकती है कि राष्ट्रसंघ रिपोर्ट के अनुसार विश्व के सबसे अधिक भूखे लोग भारत में रहते हैं और ग्लोबल हंगर इंडेक्स के अनुसार 17 करोड़ लोग भारत में रात को आधे पेट भूखे सोते है। ' सबका साथ, सबका विकास' के नारे को सच करने के लिए स्वामी विवेकानन्द के ' दरिद्रनारायण ' और महात्मा गांधी के ' अन्तोदय ' से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है।

Sender's Name: Suresh Kumar
Class: Ph.D.
Stream: Social Sciences
Central University of Himachal Pradesh, Dehra, Kangra H.P.

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